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दानों का लालच

वह एक शिकारी झाड़ी मे,
लिये जाल बैठा था ।
जंगल की चिड़िया पकड़-पकड़,
वह जंगल मे लहटा था ।
हाथों मे उसके कुछ दाने,
जंगल सब जाने-पहचाने,
वह जाल खोल कर मुसकाया,
उस पर दानों को छितराया,
फ़िर दूर चला बिन आहट के,
और बैठ गया छिप कर, डट के ।
मै पंछी था,
मै भूखा था,
जल का सोता भी सूखा था ।
था अभी-अभी उड़ना सीखा
ना स्थिति से लड़ना सीखा
दानों को देख,मै ललचाया
हिम्मत करके नीचे आया
ज्योंही पहले दाने को चुगा
धरती का तल हिलने सा लगा
अपने पंखों को फ़ैला कर
अपने शरीर को लहरा कर
जब तक मै स्थिति को जाना
बस तभी हुआ उसका आना
उसने धीरे से हाथ बढ़ा,
मेरे डैनों को तोड़ दिया,
आज़ाद किया फ़िर बंधन से,
छोटे गड्ढ़े मे छोड़ दिया,
अब ऊपर को आँख उठी,
मैने देखे उड़ते पंछी ,
तब जोर लगा मै चिल्लाया,
भगवान ! सुनो मेरे मन की ।
ग़र देता मुझको सोच समझ
मुझको न कोई ग़िला होता
आज मेरे पंखों को भी
विस्तृत आकाश  मिला होता।
(सुधांशु श्रीवास्तव)

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