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स्त्री : पुरुष के समकक्ष ?

स्त्री होना हर स्त्री का एक अलग अनुभव होता होगा, किसी के लिए दुखद और किसी के लिए सुखद। हर स्त्री के अपने अनुभव होते हैं, किसी ने बचपन बंदिशों में झेला है, किसी ने बुरा दाम्पत्य देखा,  किसी को ससुराल में सताया गया, किसी को बेटे बहु ने प्रताड़ित किया। पर हम इसे स्त्री समस्या क्यों मानने लगते हैं ? क्यों मानने लगते हैं कि हमें स्त्री होने के कारण दुःख सहने पड़ते हैं। क्या दुःख हर व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो या पुरुष,  के हिस्से में नहीं होते, जब हर स्त्री का दुःख एक सा नहीं तो पुरुषों से अपने दुःख की तुलना क्यों करते हैं हम ? चारों तरफ दृष्टि घुमाइए स्त्री होने के दुःख से कहीं बड़े दुःख हैं इस धरा पर, क्या हमने एक के दुःख को भी साझा किया ?
देखती हूँ कुछ स्त्रियाँ बस एक ही दुःख के साथ जीती हैं, पुरुष सत्ता का दुःख ! स्त्री होने का दुःख ! इसने छेड़ा, उसने छुआ, उसने घूरा।  हाँ मानती हूँ ये दुखी करता है,  यौन उत्पीड़न अन्दर ग्लानि, शर्म और क्रोध भर देता है पर उस समय खींच के एक झापड़ दे कर अन्याय का प्रतिकार करने के बजाय हम हमेशा के लिए कुंठा पाल लेते हैं, अन्याय का प्रतिकार तुरंत होना चाहिए, किसी कारणवश तुरंत न हो पाए तो जब कर सकें तब करिए पर हम जीवन भर का दंश क्यों लिए घूमे और वो भी उस अपराध के लिए जो हमने न किया हो।
मैं मानती हूँ पुरुष संभवतः हमारी तरह नहीं सोच पाते इसलिए वे हमारी समस्याएं भी नहीं समझ पाते पर क्या हम उनकी सभी समस्याएं समझ लेते हैं ? हो सकता है नहीं, पर हम क्यों समझाना चाहते हैं उन्हें ? क्यों खुद मुकाबला नहीं कर लेते ? अकेले ! हर समय कुंठा ले के जीना और प्रत्येक पुरुष को अपनी समस्या का उत्तरदायी मानना हमारे जीवन की सुन्दरता को ख़त्म कर देता है। कल्पना कीजिये ऐसे संसार की जिसमे सिर्फ औरतें या सिर्फ पुरुष हों। कैसी होगी ऐसी दुनिया ? दुःख ख़त्म हो जायेंगे ?

कुछ पुरुषों को भी देखती हूँ उन्हें सारी समस्या की जड़ स्त्रियाँ दिखती हैं,  वो कपड़े सही नहीं पहनती, वो पुरुषों से बराबरी चाहती हैं तो बसों, ट्रेनो में, या लम्बी लाइनों में उनसे चिपक के क्यों खड़ी नहीं हो जाती ? ये भी कुंठित पुरुष हैं, ये घूरने वाले, मौका मिलते ही स्त्री अंगों पर हाथ फेरने वाले कपड़ों के अन्दर तक चीरती निगाहों वाले कुंठित पुरुष।

पर मैं स्त्री होने के नाते मानती हूँ कि मुझे ऐसे पुरुषों पर बात करना भी अपनी कीमत को कम करना लगता है,  हम उनसे कई गुना बेहतर हैं तो अपने जैसे बेहतर पुरुषों की संगत  मिले तो स्वीकार करें और न मिले तो अकेले मस्त ! प्रत्येक स्त्री अपने जीवन में कभी न कभी यौन शोषण का शिकार बनती ही है, ये उतना ही निश्चित है जितना पूर्व से सूर्योदय होना, पर इसका प्रतिरोध करना आवश्यक है न कि सारी दुनिया को बुरा मान बैठना।

और इस तरह के द्वेष से निकलने के लिए पहले हमें स्त्री और पुरुष के प्राकृतिक अंतर को समझ के उसे मान देना पड़ेगा, एक शिशु बालक और शिशु बालिका की गतिविधियाँ ध्यान से देखिये,  कोई नहीं सिखाता फिर भी शिशु बालिका एक चुन्नी ओढ़े झाड़ू से खेलती मिलेगी और बालक दौड़ता, भागता,  गिरता  पड़ता  खुश होता है, यही प्रकृति है स्त्री और पुरुष की,  स्त्री आश्रय दे कर भी आश्रिता बन जाती है पर पुरुष आश्रित हो कर भी स्वयं को दानदाता मानता है, स्त्री प्रकृति से सहनशील होती है और पुरुष प्रकृति से हठी,  स्त्री प्रेम चाहती है पर पुरुष वासना प्रधान होता है,  स्त्री पालनकर्ता होती है पर पुरुष मात्र अधिकारी बन बैठता है, सबसे बड़ी बात स्त्री ममतामयी माँ होती है जबकि पुरुष गर्वान्वित पिता।।। इनमे से हमें तय करना है कि कौन श्रेष्ठ है ? यदि हम श्रेष्ठ हैं तो पुरुषों की बराबरी की होड़ क्यों? चलिए प्रयास करें पुरुषों को अपने जैसा बनाने की, शुरुआत अपने बेटों से या अपने भाइयों से करें!

पुरुषों से बराबरी करने की दौड़ में हम स्त्री होना भूलने लगे,  पुरुषों के समकक्ष होने के लिए अपने स्थान से नीचे आने की शुरुआत कर दी हमने,  उन्ही की तरह लांछन लगाने लगे, उन्ही की तरह एकाधिकार ज़माने लगे, उनकी तरह ही गर्वान्वित होने लगे। हम किसी से कम हैं क्या का प्रश्न पूछ कर अपनी अनगिनत शक्तियां कम कर ली हमने। पुरुषों जैसा बनने के लिए हम स्वयं पुरुष होने लगे।


अब ये हमें तय करना है कि इस धरा को स्त्री जैसा सुन्दर बनाये रखना है या पुरुष जैसा कठोर मात्र बना के रखना है। हमें पुरुषों के समकक्ष होने के लिए पुरुष हो जाना है या उनसे बेहतर होने के लिए स्त्री होना है।

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